कहां गये सावन के झूले अब क्यों नहीं कहते सावन के झूलों ने मुझको बुलाया
जिला संवाददाता के के श्रीवास्तव
उरई जालौन भारत त्योहारों का देश है समय समय पर आने वाले त्योहार जीवनमें उल्लास एवं उमंग का संचार करते ही हैं हमें अपनी संस्कृति से भी जोड़े रहते हैं परंतु आज त्योहारों के प्रति लोगों की मानसिकता में बदलाव आ रहा है !
आज हम एक ऐसे त्योहार एक एसी परम्परा की याद ताजा करते हैं जिसे हमने पूरी तरह भुला दिया जी हम बात करते हैं सावन मनभावन की और इसकी एक खूबसूरत परम्परा की वो है सावन के झूले लेकिन आज हम सब इसे भूले - कहते सुनते थे - सावन के झूले पड़े तुम चले आओ- सावन के झूलों ने मुझको बुलाया में परदेशी घर वापस आया - झूला तो पड़ गये अमवा की डाल पे - जैसे गीत सावन में झूला झूलने की परम्परा को याद दिलाते हैं ! सावन का महिना चल रहा है लेकिन अब न तो पेढ़ों पर सावन के झूले पड़ते हैं और न हि बाग बगीचों सखिंयों की रौनक होती है ! जबकि एक जमाने में सावन लगते ही बाग बगीचों में झूलों का आनंद लिया जाता था! विवाहित बेटियों को ससुराल से बुलाया जाता था वे मेंहदी लगाकर सावन के इस मौसम में सखियों के संग झूला झूलने का आनंद लिया करती थीं और वहीं बरसती बूंदें मौसम का मजा दोगुना कर देती थीं! लेकिन अब ये परम्परा खत्म होती क्या खत्म हो चुकी है ! अब न तो झूले पड़ते हैं और न हि गीत सुनाई देते हैं !
इनसैट---
पहला सावन मायके का बहन बेटियों के लिए पड़ते थे झूले
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हमारे गांव की बुजुर्ग महिला मंजू देवी ने बताया कि पहले सावन का महिना आते ही पेढ़ों पर झूले पड़ जाते थे पहला सावन मायके मेक्षही मनाने की परम्परा रही है !एसे में बहन बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और हाथों में मेहदी रचाकर पेढ़ों पर झूला डालकर झूलती थीं ! महिलाएं सावनी गीत गाया करती थीं !पर देखा जाये कि अब शहरों में जगह के अभाव में कहीं झूले नहीं डाले जाते घरों में जरूर कहीं कहीं झूले दख जाते हैं ! लेकिन पेढ़ों पर झूला डालकर झूलने का मजा ही कुछ और है ! एक अन्य बुजुर्ग महिला रामकली बताती है कि अपने गांव के पेढ़ पर मोटी रस्सी से झूला डालकर झूला झूलते थे और सारे गांव की बहन बेटियां भी आ जाती थीं झूला झूलने !पर अब तो एसी जगह भी नहीं है जहां झूला डालें !एसे मे सावन के झूले भी यादें बन गये है केवल कृष्ण मन्दिरों में सावन माह में भगवान को झूला झुलाने की परम्परा जरूर अभी भी निभाई जा रही है !
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