बुंदेलखंड की अनोखी परम्परा, टेसू-झिंझिया का विवाह हुआ सम्पन्न
कोंच (जालौन) बुंदेलखंड के जालौन में बुंदेली खेल की परंपरा आज भी लोग बड़े हर्षाल्लास के साथ मनाते हैं टेसू-झिंझिया विवाह का खेल बुंदेली संस्कृति को आज भी बनाए हुए है यह अदभुत खेल पूरे एक महीने तक कुंवारी कन्याओं द्वारा खेला जाता है कन्यायें इस खेल को चार चरणों में खेलती हैं जो भादौ मास की पूर्णिमा के बाद शुरू हो जाता है और शरद पूर्णिमा तक चलता है शरद पूर्णिमा की रात टेसू-झिंझिया का विवाह होने से इस पूर्णिमा को टिसवारी पूनो के नाम से भी जाना जाता है
बुंदेलखंड की धरा पर अनेक बुंदेली परंपरा आज भी अपनी छाप को छोड़े हुए हैं जिन्हें भूल पाना आसान नहीं है इसी क्रम में वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद ऋतु प्रारम्भ होने की दस्तक के मध्य यह खेल कुंवारी कन्याओं द्वारा ही खेला जाता है जिसमें कन्याओं का झुंड भोर सवेरे जाग कर पूरे 15 दिन अर्थात् क्वांर मास के प्रथम पखवारे तक दीवार पर सूर्य-चंद्रमा का गाय के गोबर से चित्र बनाती हैं तथा गोबर की टिपकी लगाती हुईं ‘भौर भए सब जागो नारे, सुअटा मालिन ठांड़ी द्वार’ गीत को गाया करती हैं एक पखवारे क्वांर मास की अमावस्या तक यह क्रम निरंतर चलता रहता है इसी पखवारे में कन्याओं द्वारा शाम को कांटो वाला झक्कर लेकर गांव की गलियों में ‘मामुलिया के आए लिवऊआ, ठुमुक चली मेरी मामुलिया’ गीत गाकर गाँव के बाहर बने तालाब-तलईया में सिराने जाती हैं इस एक पखवारे के बाद दूसरा चरण प्रारंभ होता है इस पखवारे में जिस स्थान पर गोबर की टिपकियाँ लगाई जाती हैं उसी स्थान पर मिट्टी की मूर्ति बनाकर गौरा की पूजा की जाती है इसमें कन्यायें खड़े गेंहू तथा चना को पकाकर ‘मेरी गोरा को पेट पिरानो, बरेदी भईया हपक्कू’ गीत गाकर सुबह तथा शाम को निरंतर हपक्कू मनाती हैं इसके बाद तीसरे चरण में जिन कन्याओं की शादी हो जाती है वह सुअटा के बने चित्र की पूजा आदि करती हैं नवरात्रि की अष्टमी को दीवाल पर सुअटा बनाया जाता है जिसे भौमासुर राक्षस कहा जाता है इसके बाद प्रारंभ होता है चौथा व अंतिम चरण जिसमें दशहरा वाले दिन से बच्चे टेसू बनाते हैं तथा कन्यायें मिट्टी के घिल्लों में दीपक जलाकर झिंझिया बनाती हैं इस मौके पर मुहल्ले व आस-पड़ोस के घरों से अनाज, पैसा आदि मांगने की प्रथा है जिसमें ग्रामीण बड़े हर्षोउल्लास के साथ टेसू-झिंझिया के गीत सुनकर मंत्र-मुग्ध होते हैं यह क्रम 5 दिन चलता है वही लड़के टेसू बनाकर ‘टेसू मेरा यहीं खडा़, खाने को मांगे दही बड़ा’ गीत गाते हुए घरों से अनाज-पैसा आदि मांगते हैं वहीं कन्याऐं ‘बूझत-बूझत आए थे, नारे सुअटा पौर भरी दालान’ गीत गाती हैं घरों से उन्हें दान स्वरूप अनाज, रूपये आदि देकर विदा किया जाता है शरद पूर्णिमा के दिन इस खेल का अंत टेसू-झिंझिया के विवाह के साथ हो जाता है टेसू-झिंझिया का विवाह बडे धूम-धाम से मनाया जाता है लोग अपनी-अपनी बारातों को सजाकर उसी स्थान पर ले जाते हैं जहां पर सुअटा बना होता है इस मौके पर कन्यायें सुअटा यानी भौमासुर की पूजा पैर पूजकर करती हैं दशहरा से शरद पूर्णिमा तक रात में महिलायें बुंदेली गीतों को गाकर नाचती हैं आज मनाए जाने वाले टेसू-झिंझिया के विवाह की तैयारियां पूरी कर ली गईं हैं विद्वान पं. देवेंद्र मिश्रा बताते हैं कि भौमासुर राक्षस कुंवारी कन्याओं से पैर पुजाता है इसीलिए यह राक्षस की श्रेणी में आता है श्रीकृष्ण ने इस राक्षस का वध शरद पूर्णिमा के दिन ही किया था तभी से यह परम्परा आज तक चली आ रही है बुंदेली संस्कृति का यह खेल बुंदेलखंड के अलावा मथुरा-वृंदावन में भी खेला जाता है।
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