लुप्तप्राय पुतुल कला का समाकालीन दस्तावेज छायानट विशेषांक
लखनऊ, 26 जुलाई। लुप्तप्राय पुतुल कला पर उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की त्रैमासिक पत्रिका ‘छायानट’ का अंक-167 विशेषांक रूप में प्रकाशित हो गया है। इसमें विश्व भर में हो रहे समकालीन पुतुल कला से सम्बंधित लेखों के साथ ही उत्तर-दक्षिण, उत्तर-पूर्व की परम्परागत भारतीय कठपुतली कला पर पुतुल विशेषज्ञों ने अपनी दृष्टि डाली है। विशेषांक में अंतर्राष्ट्रीय पुतुल कला मंच के अध्यक्ष पद्मश्री दादी डी.पद्मजी से बातचीत सम्यक है तो मुखपृष्ठ पर उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र की एकल कला विधा गुलाबो-सिताबों की तस्वीर के साथ यह अंक प्रदेश की इसी कला विधा को समर्पित है।
अंक में पहला सारगर्भित शोधपरक लेख प्रदेश के नवाबी दौर में विकसित हुए ‘गुलाबो-सिताबो’ के खेल पर विधा की धमक विदेशों तक पहुंचाने वाले चार दशकों के अनुभवी प्रदीपनाथ त्रिपाठी का है। उदयपुर के अपने आप में एक संस्था रहे वयोवृद्ध विद्वान डा.महेन्द्र भानावत ने गुलाबो-सिताबो की व्याख्या के साथ ही विभिन्न भारतीय और कई अन्य देशों की पुतुल कला पर अपनी दृष्टि दी है। दुनियादारी और फनकारी की दहलीज पर खड़े एक लोक कलाकार के असल हालात और त्रासदी को परम्परागत गुलाबो-सिताबो के कलाकार नौशाद पर शबाहत हुसैन विजेता से साक्षात्कार के बाद अपने लेख में इस तरह समाहित कर सामने लाए हंै कि वह सब लोक विधाओं के संस्कृति संवाहकों के बीच विचारणीय बिंदु होकर उभरे। कला समीक्षक राजवीर रतन के संपादन में निकले इस अंक के सम्पादकीय में भी गुलाबो-सिताबो से जुड़े तथ्य है तो उन्हीं के स्वच्छता अभियान पर लिखे पुतुल नाटक ‘जब जागा तभी सवेरा’ में गुलाबोे-सिताबो की नांेक-झोंक की एक आधुनिक रोचक झलकी का भी समावेश अंक के गुलाबो-सिताबो पर केन्द्रित होने की तस्दीक करता है।
दक्षिण भारत की पुतुल कलाओं के रवायती और समकालीन प्रयोगों को रामचन्द्र पुलवर-राहुल पुलवर ने अपने लेख में समेटा है। बंेगलुरु की अनुभवी पुतुलकर्मी अनुपमा होसकेरे ने परम्परा में प्रयोगशीलता को पिरोते हुए यक्षगान से सम्बंधित कर्नाटक की अनूठी सजीली पुतुल कला के बारे में उन्होंने अपने लेख में अतीत के संग भविष्य को टटोला है ओर वर्तमान को तर्कसंगत रूप में सामने रखा है। बंगाल के चमत्कृत करने वाले पुतुलकर्मी सुदीप गुप्ता ने बंगाल की पुतुल कला को अपनी दृष्टि से लेख में उकेरा है। विद्वान लोकनाथ शर्मा ने अनेक संस्कृत सूत्र प्रस्तुत किये हैं। पुतुल कला की संरक्षक के तौर पर जानी गई श्रीमती वेल्दीफिशर और उनके लखनऊ में बसाए साक्षरता निकेतन से जुड़े लायकराम मानव का लेख पुतुल कला के शैक्षिक आयाम प्रस्तुत करता है। लोककला विशेषज्ञ ज्योति किरन रतन का लेख केरल में पुतुल परम्परा का जीवंत दस्तावेज बनी पद्मश्री मुजक्किल पंकजाक्षी पर है। विदुषी डा.मौसुमी भट्टाचार्जी ने अपने लेख में असम की पुतुल कला के परम्परा से आधुनिकता की ओर बढ़ते कदमों की व्याख्या की है।
वंदना कन्नन के लेख में अंगुल पुतुल के साथ ही वैश्विक स्तर पर हुए प्रयोगों के साथ कम्प्यूटर और डिजिटल तकनीक से आए बदलावों-तकनीकों का जिक्र किया है। अनिल मिश्रा गुरुजी के लेख में मुख्य रूप से पुतुल कला के साथ अन्य लोक कलाओं में उपस्थित विसंगतियों को उकेरा गया है। पुतुल कलाकार मिलन यादव ने पुतुल समारोहों में आखों देखे प्रयोगशील पुतुल कलाकारों और अपने अनुभव साझा किए हैं। मेराज आलम ने लेख में समझाया कि बच्चों का खेल समझा जाने वाली पुतुल कला का आनन्द लेने वाले वास्तव में वयस्कजन हैं। आनंद अस्थाना ने संगीत नाटक अकादमी के प्रयासों को रेखांकित करने का यत्न किया है। पुतुल कला संचालन से कई दशकों से जुड़ी कलाकार दीपा मित्र का लेख पुतुल कला की विभिन्न आयामों और विस्तृत फलक को रूपायित करता है। अभिनेत्री, भरतनाट्यम नृत्यांगना, गायिका और बीएचयू की पीएचडी स्कॉलर डॉ. नन्दिनी मेहता की वाराणसी में हुए राष्ट्रीय पुतुल महोत्सव पर समीक्षात्मक दृष्टि दी है। अतीत से कॉलम में प्रो.रामनिरंजन लाल श्रीवास्तव के कठपुतली थियेटर के वर्णन कोयहां फिर प्रकाशित किया गया है। पुस्तक समीक्षा में रंगअध्येता भारतरत्न भार्गव की पुस्तक की सारगर्भित समीक्षा दिल्ली के संस्कृति लेखक अनिल गोयल ने की है। चिकित्सा के अंतर्गत युवा संगीत विद्वान विभा सिंह ने रागों की चिकित्सा में महत्ता को अपने संक्षिप्त लेख में सहज ढंग से सामने रखा है।
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