गांवो में अब नहीं सुनाई दे रही सावन माह में कजरी की गूंज
मनोज तिवारी ब्यूरो प्रमुख अयोध्या
अयोध्या सावन माह के शुरू होते ही बारिश की फुहारों के बीच पेड़ों पर झूले और कजरी के धुन से वातावरण में मिठास गूंज उठती थी लेकिन अब गांव में कहीं झूला नहीं दिख रहा है ना ही कहीं कजरी के मीठे गीत की धुन सुनाई दे रही है आधुनिकता के चकाचौंध में परंपराएं व सांस्कृतिक धरोहर विलुप्त होती जा रही हैं करीब डेढ़ दो दशक पूर्व सावन माह शुरू होते ही गांव में झूला के साथ ही कजरी के मीठे गीत 'पिया मेहंदी मगा द मोती झील से, जाइ के साइकिल से ना'आदि कजरी गीत काफी प्रचलित रही महिलाएं लड़कियां एक जगह इकट्ठा होकर सावन माह में कजरी गीत गया करती थी लेकिन आज के समय में प्रेम का अभाव साफ दिख रहा है समय के अभाव व आधुनिकता के चलते कजरी गीत तो दूर कई घरेलू परंपराएं विलुप्त होती जा रही है गांवो में नाग पंचमी के दिन पेड़ की डाल पर झूला डालकर महिलाएं व लड़कियां कजरी गीत गाती थी पहले वर्षा ऋतु के शुरू होते ही जैसे-जैसे धरती पर हरियाली अपनी छठा विखेरती थी वैसे वैसे युवाओं और युवतियों का उल्लास चरम पर पहुंचने लगता था पहले गांव में जगह-जगह वृक्षों की शाखाओं पर झूला डालकर कजरी और सावनी गीत गाई जाती थी उन गीतों में समय व परिस्थितियों की चर्चा तो होती ही थी भक्ति गीतों का समावेश भी होता था।अब जैसे-जैसे बाग बगीचे नष्ट होते जा रहे हैं धरती के सुहाग कहे जाने वाले तमाम वृक्षों को तथाकथित लकड़ कट्टों के द्वारा काट कर खत्म कर दिया जा रहा है वैसे ही कहीं-कहीं बचे बाग बगीचों व वृक्षों पर ना झूले दिखाई दे रहे हैं और ना ही सावन माह में अब सावन की गीत की धुन ही कहीं सुनाई दे रही है। हरियाली तीज की परंपरा कम हो चुकी है सावन के तमाम गीतों की पहचान अब मिटती जा रही है। जिससे भारतीय त्यौहार व संस्कृति के साथ ही संस्कार पर भी चोट पहुंच रही है।
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