मुकरी मेरे शेरों की हजामत जो बना दे,इस शहर ऐसा कोई हज्जाम नहीं है।

अमित गुप्ता
उरई जालौन
उरई/जालौन साहित्यिक संस्था सफ़ीरे-सुख़न की जानिब से हुए (फ़रीद अली बशर के आवास पर) देर रात तक चले जिला स्तरीय मुशायरे एवं काव्य गोष्ठी में जम के बही गजलों और गीतों की बयार।
मुशायरे की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार श्री इसरार अहमद मुकरी जी ने की और संचालन निज़ाम हुसैन फ़िदा ने किया। उरई,कालपी, कोटरा से आए शायरों ने अपनी गजलों से श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया।
हसीब साहब कालपी ने पढ़ा-
क्या विश्व गुरु ऐसे ही बन बन जाओगे देखोगे।
हाथों में युवाओं के कोई काम नहीं है।
मुकरी साहब ने पढ़ा-
मुकरी मेरे शेरों की हजामत जो बना दे।
इस शहर ऐसा कोई हज्जाम नहीं है।
अब्दुल सलाम राही ने पढ़ा-
तेरा जमाल हद्दे नज़र देख रहे हैं।
हर सम्त तू ही तू है जिधर देख रहे हैं।
नईम ज़िया कानपुरी ने पढ़ा-
औलाद अगर नेक चलन है तो जहां में।
औलाद से बढ़कर कोई इनआम नहीं है।
शकील चिश्ती ने पढ़ा-
तुम आओ ग़ज़ल बन के कभी मेरे लबों पर।
मशहूर ना कर दूं तो मेरा नाम नहीं है।
जावेद क़सीम ने पढ़ा-
मेरी तबाहियों में रहा है जो पेश पेश।
अब तक वो शख़्स मूदिदे इल्ज़ाम नहीं है।
निज़ाम फ़िदा ने पढ़ा-
सजदे के दरम्यान में जितना कयाम है।
मेरे अज़ीज़ ज़िन्दगी उसका ही नाम है।
शमीम अफ़सर ने पढ़ा-
ये बज़्मे मुहब्बत है कोई आम नहीं है।
नफ़रत के पुजारी का यहां काम नहीं है।
शमसुल हुदा ने पढ़ा-
उन पर जफ़ा का कोई भी इल्ज़ाम नहीं है।
मेरी तो वफाओं का कोई नाम नहीं है।
फ़हीम बासौदवी ने पढ़ा-
मेरा यक़ीन है कि शिफ़ा उसको मिलेगी।
माना कि अभी दर्द में आराम नहीं है।
परवेज़ अख़्तर ने पढ़ा-
जैसा सुकून मिलता है आगोश में मां की।
ऐसा तो जहां में कहीं आराम नहीं है।
आज़म बद्र ने पढ़ा-
मिल जाए किसी को वफ़ादार हमसफ़र।
इससे बड़ा आज़म कोई इनआम नहीं है।
शाहिद हारून ने पढ़ा-
हूं ज़मीं पर मैं नज़र मेरी बलन्दी पर है।
हौसला ही मेरी मंज़िल का पता देता है।
मु. फ़राज़ ने पढ़ा-
ये कैसे अच्छे दिन हैं के हम जैसे लाखों लोग।
डिग्री तो लिए बैठे हैं पर काम नहीं है।
इंतिख़ाब दानिश ने पढ़ा- हों जिसके साथ मां की दुआएं हयात में।
वो शख़्स आख़िरत में भी नाकाम नहीं है।
विमला तिवारी जी ने आनलाइन शिरकत कर पढ़ा-
ख़ुशबू की तरह ए विमल होते हैं कई लोग।
एहसास के रिश्तों का कोई नाम नहीं है।
फरीद अली बशर ने पढ़ा-
ख़ुद द्रोपदी को चक्र उठाना ही पड़ेगा।
इस दौर में अब कोई भी घनश्याम नहीं है।
मुईनुद्दीन कालपी ने पढ़ा-
इक बूंद ज़मीं पर ना गिरे हज़रते साक़ी।
शब्बीर का शरबत है तेरा जाम नहीं है।
अनूप कुमार(बाबू भईया)ने पढ़ा-
वक्त जो बदला है थोड़ा सा हमारा।
बदलने लगीं हर इंसान की बातें।
ज़ुबैर कोटरा ने पढ़ा-
दिन रात तसव्वुर है उसी राहते जां का।
अब इसके सिवा और कोई काम नहीं है।
गोष्ठी में अच्छे श्रोता के रूप में अंत तक मौजूद रहे राजेन्द्र यादव, अनवर हुसैन, रफ़ीक भाई, अनीस अंसारी, विष्णुकांत, शाहिद भाई, इमरान अंसारी व कालपी और कोटरा से आए हुए कुछ लोग कार्यक्रम के समापन पर संस्था के अध्यक्ष फ़रीद अली बशर ने सभी शायरों व श्रोताओं का आभार व्यक्त किया और जनपद में ये साहित्यिक यात्रा अनवरत चलती रहे इसके लिए सभी लोगों से सहयोग की अपील भी की।
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