जातिवाद वर्चस्व के नाम पर जातिगत जनगणना का विरोध, संसाधनों पर अभिजात्य वर्ग का कब्जा

Aug 11, 2024 - 07:52
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जातिवाद वर्चस्व के नाम पर जातिगत जनगणना का विरोध, संसाधनों पर अभिजात्य वर्ग का कब्जा

व्यूरो के के श्रीवास्तव जालौन 

उरई जालौन आज के समय सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले नेता बहुत ज्यादा है लेकिन नेतृत्व और भागीदारी देने के लिए सिर्फ और सिर्फ जाति वर्चस्व को ही बढ़ावा दिया जाता है संविधान की शपथ लेकर लोकसभा, विधानसभा में शोषितों,वंचितों के नाम पर अपनी राजनीति चमकाई जा रही है। देश में जब भी स्वतंत्रता के बाद वंचितों के भविष्य के बारे में चर्चा की जाती है तो सबसे पहले काका कालेलकर कमीशन फिर इसके बाद मंडल आयोग की बात होती है मंडल आयोग की सिफारिश लागू कराने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री बीपी सिंह को अपनी कुर्सी भी गंवानी पड़ी थी कुछ समय में ही उनकी सरकार को गिरा दिया गया और देश में मध्यावर्ती चुनाव हुए।

आज भी अति पिछड़ा वर्ग सामाजिक न्याय की जरूरत महसूस करता है। भारत में अति पिछड़े वर्गों के सामने अभी भी कई चुनौतियाँ हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

- _शैक्षिक पिछड़ापन_: पिछड़े वर्गों में शैक्षिक स्तर अभी भी कम है, जिससे उन्हें रोजगार और अन्य अवसरों में पिछड़ना पड़ता है।

- _आर्थिक पिछड़ापन_: पिछड़े वर्गों में आर्थिक स्थिति अभी भी कमजोर है, जिससे उन्हें अपने जीवन को सुधारने में मुश्किल होती है।

- _सामाजिक भेदभाव_: पिछड़े वर्गों के साथ सामाजिक भेदभाव अभी भी होता है, जिससे उन्हें अपने अधिकारों को प्राप्त करने में मुश्किल होती है।

- _राजनीतिक प्रतिनिधित्व_: पिछड़े वर्गों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व अभी भी कम है, जिससे उनकी आवाज़ को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है।

इन चुनौतियों को देखते हुए, पिछड़े हुई वर्गों को सामाजिक न्याय की जरूरत अभी भी है, जिसमें शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में उनके अधिकारों की रक्षा और विकास किया जा सके।

*सामाजिक कार्यकर्ता एवं युवा नेता मंगल सिंह खंगार बताते हैं* 

वंचित वर्ग के लोगों से बात की जाए तो खंगार समाज आज बड़ा ही असमंजस की स्थिति में है जबकि देश की आजादी स्वतंत्रता संग्राम से लेकर और भी बहुत गौरव शाली इतिहास इस समाज का रहा है लेकिन बुंदेलखंड के कुछ जिलों में यह समाज पिछड़ा बैकवर्ड में आता है जबकि कुछ जिलों में सामान्य वर्ग में आता है और अगर प्रदेश से बाहर जाएं तो एमपी में यही समाज दलित वर्ग में आता है। इस असमंजस भरी स्थिति में इस समाज को ना तो सामाजिक भागीदारी मिल पा रही है और न ही राजनैतिक हिस्सेदारी मिल पा रही है। ऐसी स्थिति में जातिगत जनगणना एक सफल सामाजिक न्याय का आधार बन सकता है।

*जातिवाद की राजनीति के कारण वंचितों को भविष्य अंधेरे में*

उत्तर प्रदेश में अति पिछड़े वर्ग (OBC) के कुछ जातियों को अनुसूचित जाति (SC) में शामिल करने के लिए कई प्रयास हुए हैं। इनमें से 17 जातियाँ प्रमुख हैं, जो कि निम्नलिखित हैं:

1. **कुम्हार**

2. **मल्लाह**

3. **निषाद**

4. **मछुआरा**

5. **बिंद**

6. **धींवर**

7. **प्रजापति**

8. **धनगर**

9. **धोबी (जो नदी किनारे कपड़े धोते हैं)**

10. **कहार**

11. **केवट**

12. **भर**

13. **राजभर**

14. **कश्यप**

15. **तुर्क**

16. **रैकवार**

17. **सोनकर**

सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट कहती है कि इन्हीं जातियों को सामाजिक न्याय राजनीतिक भागीदारी एवं उच्च शिक्षा के लिए न जाने कितनी आयु बने लेकिन फिर भी इन जातियों के विभाजनों को फाइलों में दबा कर सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाली राजनीतिक पार्टियां शांत है और इस वोट बैंक को जागरूता, हिस्सेदारी दिलाने के नाम पर अपने पक्ष में लाने का प्रयास करती रहती हैं।

हालांकि, इस निर्णय को कानूनी विवादों और सामाजिक चिंताओं के कारण लागू करना अभी भी चुनौतीपूर्ण है। इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के पीछे मुख्य उद्देश्य उनके सामाजिक और आर्थिक विकास को गति देना था, लेकिन इसे प्रभावी ढंग से लागू करने में कुछ बाधाएँ रही हैं।

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